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निरपेक्ष बनाम सापेक्ष
पंथनिरपेक्षता के नाम पर जनता दल-युनाइटेड के राष्ट्रीय जनतांत्रिक
गठबन्धन छोड़ने से धर्मनिरपेक्षता पुनश्च सवालों व संदेहों के कटघरे में आ
गयी है। वैसे भारतीय जनता ख़ासकर मुस्लिम जमात को इस मुग़ालते में नहीं
रहना चाहिए कि नीतीश कुमार एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष नेता हैं।
धर्मनिरपेक्षता का निकृष्ट अभिनय करनेवाले नीतीश कुमार निहायत ही
अवसरवादी व सत्तालोलुप नेता हैं, जो गुड़ तो खाते हैं लेकिन गुलगुले से
परहेज़ करते हैं। हालिया घटनाक्रम नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार की
महत्वाकांक्षाओं के भिड़न्त का परिणाम है। अवसरवादिता के सन्दर्भ में
कर्नाटक के जनता दल-सेक्यूलर और बिहार के जनता दल-युनाइटेड में कोई अन्तर
नहीं है। सीबीआई की तलवार लटकने पर यूपी में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह भी
कुछ इसी तरह का राग अलापते नज़र आते हैं कि साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता
में आने से रोकने के लिए वह कॉन्ग्रेस का साथ देंगे।
भारतीय राजनीति में निरपेक्षता के बैनर तले सापेक्षता का नंगा खेल खेला
जा रहा है। यहाँ की लगभग सारी पार्टियाँ ख़ालिस जाति व मज़हबपरस्त हैं।
यहाँ तक कि पार्टियों का गठन भी धर्म-जाति की बुनियाद पर हुआ है। राजनीति
में केवल एक धर्म की तूती बोलती है और वह है सत्ता का धर्म। धर्मकर्म की
राख पर धत्कर्म का परचम बुलन्द करके ही सियासत में क़दम रखा जाता है।
पिछले साठ वर्षों में हमारे नेताओं ने जिस तरह देश को अहर्निश लूटा है,
वैसा कोई धार्मिक स्वभाववाला व्यक्ति कदापि नहीं करेगा। भारतीय
परिप्रेक्ष्य में नकारात्मक धर्मनिरपेक्षता का बोलबाला है। बहुसंख्य धर्म
की अवहेलना व अपमान करके अल्पसंख्यक वर्ग का बेजा तुष्टिकरण करना आजकल
चलन में है। कई तथाकथित बुद्धिजीवियों और नेताओं की तो रोज़ी-रोटी इसी
धर्म के धन्धे से चलती है।
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