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उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश, बाढ़ व भूस्खलन से वहाँ के
पर्यटक, श्रद्धालु और स्थानीय निवासी मुसीबतों मे आकंठ डूबे हैं। मकान,
सड़क, संचार आदि आधारभूत ढाँचा पूर्णतया ज़मीदोज़ हो गया है। पहाड़ों और
तटबंधों पर बेहिसाब व अवैध निर्माण-कार्य, विस्फोटकों से पहाड़ों को छलनी
करना, वनों की कटाई, ज़्यादा मात्रा में पर्यटकों की आवाजाही आदि विभिन्न
कारणों से पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्र क्षत-विक्षत् हो गया है, जिसका
ख़ामियाज़ा सभी को भुगतना पड़ रहा है। पर्यावरण की उपेक्षा करने वाले विकास
के मौजूदा स्वरूप में यदि परिवर्तन नहीं किया जाता है तो इस प्रकार
विभीषिका की पुनरावृत्ति की प्रबल सम्भावनाएँ हैं। यही नहीं, प्रभावितों
को क़ुदरती कहर के साथ-साथ मानवीय बदइंतज़ामी की दोहरी मार भी झेलनी पड़ रही
है। पुलिस और प्रशासन का उदासीन रवैया बेहद निराशाजनक व निंदनीय है। उनकी
प्राथमिकता जहाँ पीड़ितों को मदद करने की होनी चाहिए थी, वहाँ अधिकारीगण
ख़ुद हेलीकॉप्टर से भाग खड़े हो रहे हैं। यही नहीं, उनके द्वारा थोड़ा-बहुत
जो राहतकार्य किया जा रहा है, उसमें भौगोलिक स्थिति और रसूख के आधार पर
भेदभाव भी किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने
भी इस प्रवृत्ति पर अपनी आपत्ति प्रकट की है। भला हो भारतीय सेना का, जो
वहाँ विपत्तियों के बावजूद भी राहत एवं बचाव कार्य में जुटी है। जैसाकि
भारतीय मौसम विभाग ने भी बताया कि प्रत्येक वर्ष 1 से 18 जून को
दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से यहाँ बारिश होती है। इस बार वहाँ सामान्य से
440 प्रतिशत बारिश होने से स्थिति विकट हो गयी। विभाग ने केन्द्र व राज्य
सरकार को इस बाबत चेतावनी भी जारी की थी, जिसे शायद गम्भीरता से नहीं
लिया गया। जब उस इलाक़े में अतिवृष्टि से प्रसूत तबाही का इतिहास रहा है
तो राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन् प्राधिकरण नामक तंत्र कान में तेल डालकर
क्यों बैठा था। आख़िर क्यों वहाँ भारी संख्या में पर्यटकों और श्रद्धालुओं
को जाने दिया गया। क्यों नहीं स्थानीय बाशिंदों को सचेत किया गया !
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