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किसी ने ठीक ही कहा कि इन्सानी फ़ितरत होती है कि वह व्यक्तियों के बलिदान
व महान् कार्यों का जीवनकाल में नहीं बल्कि इहलीला समाप्त होने के बाद
स्मरण करता है। पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में 23 वर्षों से बन्द भारतीय
क़ैदी सरबजीत सिंह को मरने के बाद शहीद का दर्ज़ा देने की तैयारी है।
राजनेताओं ने घड़ियालू आँसू बहाने में एक दूसरे का रिकॉर्ड तोड़ दिया,
लेकिन जब वह ज़िन्दा था तो किसी ने उसे छुड़ाने की ईमानदार क़ोशिश नहीं की।
बहरहाल सरबजीत तो जेल से जन्नत पहुँच गये हैं जोकि इन्सानी ताक़त से परे
है, लेकिन एक और शहादत को रोकना अभी हमारे वश में हैं। पूर्वोत्तर राज्य
मणिपुर में पिछले 13 सालों से आन्दोलनरत् इरोम शर्मिला चानू के त्याग व
संघर्ष को जीवनकाल में ही मान्यता प्रदान कर सकते हैं। यदि आज हमारे
नीति-नियंताओं ने इरोम की माँगों को स्वीकार नहीं किया तो शहीद होने के
बाद मगरमच्छी आँसू छलकाने का कोई औचित्य नहीं होगा।
क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि इरोम मणिपुर सहित पूर्वोत्तर राज्यों में लागू
‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम, 1958’ के निरस्तीकरण या उसे उदार बनाने
हेतु 2 नवम्बर, 2002 से अनशरत् हैं। यह अधिनियम सुरक्षा बलों को बिना
वारण्ट के तलाशी या गिरफ़्तारी करने, किसी भी क्षेत्र को अशांत क्षेत्र
घोषित करने जैसे निरंकुश अधिकार देता है। इस क़ानून के दुरूपयोग के कई
मामले प्रकाश में आ चुके हैं। सरकार इरोम की वाजिब माँगों पर कान धरने से
इंकार करती आ रही है। मणिपुर की लौह महिला के नाम से मशहूर इरोम को उनके
इस अप्रतिम बलिदान के लिए कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। इरोम के संघर्ष
के सीमांतीकरण की एक मुख्य वजह मणिपुर का सीमांत प्रदेश होना भी है।
राजधानी दिल्ली में कुछ मुट्ठी भर लोग मोमबत्तियाँ लेकर एक दिन के लिए
सड़क पर आ जाएँ तो सरकार के नुमाइंदे लिखित-अलिखित आश्वासनों का पिटारा
लेकर पहुँच जाते हैं। ‘टेलीविज़न ऑडियन्स मेज़रमेण्ट’ (टैम) के पीपुलमीटर
मणिपुर में नहीं लगे हैं, इसलिए शायद मुख्यधारा का मीडिया भी मुद्दे के
गहन विश्लेषण व व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण करने से कन्नी काटता है।
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