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सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रहने की भारतीय राजनीतिक दलों की जद्दोजहद से कथनी-करनी में अंतर वाली कहावत ही चरितार्थ होती है। शासन में पारदर्शिता हेतु संप्रग गुट ने पुरज़ोर वक़ालत की थी, लेकिन जब बारी अपनी आयी तो वह मुख़ालिफ़त पर उतर आया है। इससे भी दुःखद यह है कि अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी (आप) को छोड़कर भाजपा समेत सभी दल आरटीआई-विरोधी खेमें में शामिल हो गये हैं। सारे मौसेरे भाइयों की यह एकजुटता बिरले ही परिलक्षित होती है। जनता से जुड़े मुद्दों पर इन पार्टियों में कभी एकराय नहीं होती है और जब बात इनके वेतन-भत्ते, सुविधाएँ आदि बढ़ाने से हो तो सर्वसम्मति का परिचय देती हैं। नौकरशाही को जवाबदेह बनाने में जब हमें लगभग साठ साल का वक़्त लगा तो ये पार्टियाँ इतनी आसानी से अपनी स्वछंदता छोड़नेवाली नही हैं।
भारतीय जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के ज़रिए शासन व विकास की प्रक्रिया में प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता की भागीदारी सुनिश्चित की गयी। इस तरह तंत्र को लोक के प्रति उत्तरदायी बनाया गया। उम्मीद की गयी कि सियासी नुमाइंदों द्वारा पारदर्शिता बरती जाएगी, लेकिन नाउम्मीदी ही हाथ लगी। भाईभतीजावाद को प्रश्रय, अनैतिक तरीक़ों से चन्दा उगाही, बड़े उद्योग घरानों से साठगाँठ, आपराधिक तत्वों का समावेश, देश की बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदा की लूट, घपले-घोटाले, संसद व विधानसभा में पैसे लेकर सवाल पूछने, विदेशों में काला धन जमा करने आदि जैसी प्रवृत्तियों के कारण ही राजनीतिक सुधारीकरण की आवश्कता महसूस की गयी। उल्लेखनीय है कि सूचना अधिकार कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल और ‘एसोसिएशन फ़ाॅर डेमोक्रेटिक रिफ़ाॅर्म’ (एडीआर) की ओर से दाखिल याचिका पर केन्द्रीय सूचना आयोग की पूर्ण पीठ ने राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्था घोषित करते हुए सूचना का अधिकार क़ानून,2005 के दायरे में आने का निर्णय दिया। मुख्य सूचना आयुक्त सत्येन्द्र मिश्र, सूचना आयुक्त अन्नपूर्णा दीक्षित व एमएल शर्मा की पीठ ने राष्ट्रीय दलों को छह सप्ताह के भीतर सूचना अधिकारी नियुक्त करने को कहा। प्रतिकार करते हुए पार्टियों ने इस फ़ैसले को अदालत में चुनौती देने की बात कही।
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