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पाँच जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इसका मतलब है कि पर्यावरण को लेकर कुछ ख़ास है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह ख़ास किसी महत्वपूर्ण उपलब्धि से नहीं बल्कि पर्यावरण के साथ किये गये सौतेले रवैये की भरपाई सेसम्बद्ध है। पारिस्थितिकी तंत्र को क्षत-विक्षत करने की कहानी शुरू होती है यूरोप में प्रारम्भ हुए औद्योगिक क्रांति से। इस क्रांति से प्रथम विश्व (यूरोप व उत्तरी अमेरिकी महाद्वीप) और द्वितीय विश्व (सोवियत संघ) के देश लाभान्वित हुए। इस वक़्त प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन किया गया। बीसवीं शताब्दी के मध्य तक एशिया, अफ्ऱीका व लैटिन अमेरिका के कई देश औपनिवेशिक दासता से आज़ाद हुए। इन्हें समग्र रूप से तृतीय विश्व की संज्ञा दी गयी। इस तीसरे विश्व में ‘विकास-विमर्श’ और ‘फ़ेयर डील’ के तहत् विकास के पश्चिमी मॉडल (आधुनिकीकरण) का पुनप्र्रयोग किया गया। ये देश विकास के लिए तेज़ी से औद्योगीकरण के पाश्चात्य प्रारूप के मार्ग पर चल निकलते हैं। रही-सही क़सर नब्बे के दशक में नव-उदारवादी नीतियों ने पूरा कर दिया।
विकास की प्रक्रिया में जिस चीज़ की अनदेखी की गयी वह थी पर्यावरण। सभी विश्व के सभी देशों ने अपनी क्षमता के अनुकूल पर्यावरण को भारी क्षति पहुँचाई। शीत युद्ध के दरम्यान अमेरिकी व सोवियत गुट ने विनाशकारी परमाणु बम बनाया जिसकी विभीषिका जापान को आज भी झेलनी पड़ रही है। आज ग्लोबल वॉर्मिंग, प्रदूषण, अम्लीय वर्षा, जैव-विविधता में गिरावट, प्राकृतिक आपदाए आदि विभिन्न रूपों में मानवीय सभ्यता को ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ रहा है। नुक़सान की भरपाई के लिए संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई में होनेवाले उत्तर-दक्षिण सहयोग के तहत् कॉप (कॉन्फ्ऱेंस ऑफ़ पार्टीज़) सम्मेलनों में विकसति देश अपने पाप व ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी से मुकरते हुए तृतीय विश्व के देशों पर ठीकरा फोड़ रहे हैं। नीतिगत् स्तर क्या होता है यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है, ‘पृथ्वीपुत्र व पुत्री’ होने के नाते हमें व्यक्तिगत् स्तर पर पर्यावरण को संवारने का हरसम्भव प्रयास करना होगा। हाँ, ‘सतत् विकास’ की अवधारणा से थोड़ी उम्मीद बँधती है क्योंकि इसमें संसाधनों के तात्कालिक दोहन की अपेक्षा भविष्य की ज़रूरतों को भी ध्यान में रखा जाता है।
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