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तीसरे प्रेस आयोग की ज़रूरत

Vikalp
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अभी कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल में शारदा समूह द्वारा किये गये चिटफ़ंड घोटाले के कारण एक बार फिर से प्रेस के स्वामित्व पर सवालिया निशान लग गया है। इस समूह ने जनता में भरोसा जगाने, अपने गोरखधन्धों को वैधता व संरक्षण प्रदान करने और पुलिस-प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए अख़बार व समाचार चैनल खोल रखा था। इस समूह ने एक ओर जनता की गाढ़ी कमाई को चपत लगाई तो दूसरी ओर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व प्रेस की आज़ादी के मौलिक अधिकारों का दुरूपयोग भी किया। व्यावसायीकरण के चलते आज मीडिया में मीडिया से इतर कम्पनियों का प्रवेश (कंग्लोमरेशन) और मीडिया के विभिन्न प्लैटफ़ॉर्मों पर क़ब्ज़ा (क्रॉस मीडिया ऑनरशिप) जैसी प्रवृत्तियाँ बुलन्द हो रही हैं। परिणामस्वरूप मीडिया का स्वामित्व कुछ मुट्ठी भर लोगों के हाथ में संकेन्द्रित हो गया है और ‘स्रोतों की विविधता व लोकवृत्त’ जैसी अवधारणाओं को गहरा आघात लगा है। चन्द तिजारतियों द्वारा ‘फ़ोर्थ इस्टेट’ को ‘रियल इस्टेट’ में तब्दील किया जा रहा है।
जिंदल-ज़ी न्यूज़ प्रकरण से स्पष्ट हो गया कि सम्पादक जैसी पवित्र संस्था आज धतकर्म में संलिप्त है। पेड न्यूज़ के मामले से जनता का मीडिया में विश्वास डिगा है। नेक्स्ट जनरेशन के नाम पर मनोरंजन चैनलों पर भारतीय संस्कृति की परवाह किये बग़ैर परोसे जानेवाले विदेशी क्लोन कार्यक्रम युवामों में कुण्ठा ही जागृत कर रहे हैं। चैनलों पर समाचारों का अति-नाटकीयकरण और नाटकों का समाचारीकरण, भविष्यफल बताने व सुधारनेवाले बाबाओं की भरमार है। सोशल मीडिया पर गुमनाम स्रोतों से अफ़वाहों के प्रसार के कारण असम दंगे ने संगीन शक्ल अख़्तियार कर ली थी। इन मुद्दों के आलोक में तीसरे प्रेस या मीडिया आयोग के गठन की ज़रूरत है। मालूम हो पहला प्रेस कमीशन (1952) और दूसरा प्रेस कमीशन (1978) नवउदारवादी नीतियों के लागू होने से पहले गठित किये गये थे। तीन दशक बाद मीडिया की संरचना व सरोकारों में बहुत तब्दीलियाँ आयी हैं। आयोग द्वारा इन विषयों का गहन विश्लेषण करके ‘लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ’ की मज़बूती के लिए दिये जानेवाले सुझावों पर ग़ौर भी फ़रमाया जाए।

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