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ग़रीबों का सीमांतीकरण

Vikalp
Vikalp
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भारतीय अर्थव्यवस्था एक घातक संक्रमण के दौर से गुज़र रही है। एक
प्रतिमान् से दूसरे प्रतिमान में परिवर्तन हो रहा है। स्याह पहलू यह है
कि तब्दीली की रूख़ और लाभ आम से ख़ास की ओर है। चीनी पर से लेवी हटाकर
नियंत्रणमुक्त करना, डीज़ल और पेट्रोलियम सब्सिडी ख़त्म करना, उर्वरक के
दाम में बेतहाशा बढ़ोत्तरी, बढ़ता निजीकरण, विशेष आर्थिक क्षेत्रों को
प्रोत्साहन, तथाकथित विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित करके धरती को
तहस-नहस करना, द्धितीयक (उद्योग) और तृतीयक (सेवा) क्षेत्रों को
‘प्रोत्साहन पैकेज’ देना आदि कुछ ऐसे काम हैं जिनसे आम लोगों को अशक्त
बनाया जा रहा है।

बाज़ार का मूल नियम है कि यह लाभ के सिद्धान्त पर चलता है। यहाँ ग़रीब और
आम लोगों के लिए विकल्प बहुत ही सीमित हैं। भला गलाकाट प्रतिस्पर्धा से
किसी का भला हुआ है ! सन् 2007-2008 की मंदी के समय भारतीय अर्थव्यवस्था
को ज़्यादा झटका नहीं लगा था, कारण – विकास योजनाओं और सब्सिडी के चलते
लोगों के हाथ में पैसा था और इस तरह ग्रामीण क्षेत्रों से माँग बनी रही।
अब हम अपनी व्यवस्था और लोगों को बाज़ार के भरोसे छोड़कर ख़तरे को दावत दे
रहे हैं।

हमारी अर्थव्यवस्था का स्वरूप मिश्रित है। हमारे संविधान निर्माताओं और
आरम्भिक भविष्यद्रष्टाओं ने पूँजीवादी और समाजवादी दोनों अर्थव्यवस्थाओं
के गुणों को अंगीकार किया, जिससे हम विकास के पथ पर तीव्र गति से दौड़
सकें- समतामूलक समाज की स्थापना के साथ। लेकिन आज की परिस्थिति में इसे
मिश्रित के बजाय शुद्ध पूँजीवादी कहना ज़्यादा बेहतर होगा।

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